सेहत की फिक्र: संपादकीय

जिस राज्य का पहला कर्तव्य अपने नागरिकों को पर्याप्त व उच्च गुणवत्ता वाला भोजन, उत्कृष्ट शिक्षा और स्वास्थ्य मुहैया कराना होना चाहिए, आज वह उन्हीं में सबसे ज्यादा नाकाम रहा है। आज भी देश में स्वास्थ्य सेवाओं का जो आलम है, उन्हें देख कर तो लगता है कि लोगों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया है। यही वजह है कि देश में जहां एक तरफ झोलाछाप डॉक्टरों की भरमार है तो दूसरी ओर निजी क्षेत्र के अस्पताल सिर्फ मुनाफा बनाने में मग्न हैं।

कोरोना मरीजों के स्‍वास्‍थ्‍य की जांच करते स्‍वास्‍थ्‍यकर्मी। फाइल फोटो।


नीति आयोग ने देश के स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए खर्च बढ़ाने की जो जरूरत रेखांकित की है, उसे इस बात की स्वीकारोक्ति माना जाना चाहिए कि हमारा स्वास्थ्य क्षेत्र सिर्फ कमजोर ही नहीं है, बल्कि आबादी के हिसाब से अपर्याप्त भी है। हालांकि यह कोई छिपा तथ्य नहीं है और सारी सरकारें इस हकीकत से वाकिफ हैं। लेकिन कटु सत्य यह है कि आमजन के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं सरकारों की प्राथमिकता में कभी रही नहीं।


इसलिए स्वास्थ्य क्षेत्र बीमार होता चला गया। पिछले आठ महीनों के कोरोना काल में स्वास्थ्य सेवाओं की जो बदहाली उजागर हुई, वह बहुत ही निराशाजनक तस्वीर पेश करती है। इसलिए स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढांचे को मजबूत कैसे बनाया जाए, अब इस पर तेजी से काम करने का वक्त आ गया है। सवा अरब से ज्यादा आबादी वाले देश के लिए मजबूत और कारगर स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को खड़ा करने के लिए भारी-भरकम रकम चाहिए। नीति आयोग के सदस्य वी के पॉल का मानना है कि स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने और उन्हें देश के हर व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए केंद्र और राज्यों- दोनों को ही स्वास्थ्य सेवाओं की मद में खर्च बढ़ाना होगा।


जिस राज्य का पहला कर्तव्य अपने नागरिकों को पर्याप्त व उच्च गुणवत्ता वाला भोजन, उत्कृष्ट शिक्षा और स्वास्थ्य मुहैया कराना होना चाहिए, आज वह उन्हीं में सबसे ज्यादा नाकाम रहा है। आज भी देश में स्वास्थ्य सेवाओं का जो आलम है, उन्हें देख कर तो लगता है कि लोगों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया है। यही वजह है कि देश में जहां एक तरफ झोलाछाप डॉक्टरों की भरमार है तो दूसरी ओर निजी क्षेत्र के अस्पताल सिर्फ मुनाफा बनाने में मग्न हैं।


कहने को देश के हर जिले में अस्पताल हैं, ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी हैं, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र ठप जैसी हालत में ही हैं। लंबे समय तक डाक्टर नदारद रहते हैं, दवाइयां नहीं होती, अस्पतालों में बिस्तर नहीं हैं, आॅपरेशन का सामान नहीं होता, साफ-सफाई का तो सवाल ही नहीं। ग्रामीणों को जरा-जरा सी बीमारियों के इलाज के लिए इलाज के लिए शहरों की ओर भागने को मजबूर होना पड़ता है। हालांकि ये प्रशासनिक तंत्र की खामियां हैं, जिन्हें सतत निगरानी से दूर किया जा सकता है। पर ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा, यह बड़ा सवाल है।


भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का मात्र डेढ़ फीसद ही खर्च होता है। यानी सबसे जरूरी मद में सबसे कम खर्च। हालांकि सरकार ने अगले पांच साल में इसे तीन फीसद तक करने का लक्ष्य रखा है। लेकिन भारत की जरूरतों के हिसाब से तो तीन फीसद भी नाकाफी है। दुनिया के कई देश स्वास्थ्य की मद में आठ से नौ फीसद तक खर्च कर रहे हैं। भले हम दूसरे देशों से होड़ न करें, लेकिन एक बेहतर स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र खड़ा करने के लिए जितना जरूरी खर्च करने की जरूरत है, उतना तो किया जाए।


चाहे नीति आयोग द्वारा बनाया राज्यों का स्वास्थ्य सूचकांक देख लें, या वैश्विक स्वास्थ्य सेवा सूचकांक, भारत में चिकित्सा क्षेत्र की बदहाली की कहानी सब एक जैसे ही कहते मिलेंगे। स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को बेहतर बनाने में धन संबंधी कोताही महंगी साबित हो रही है। भारत ने जिन बीमारियों से मुक्ति के लिए अगले एक दशक के लक्ष्य तय किए हैं, वे भी पैसे के अभाव में पूरे नहीं हो पाएंगे और देश की आबादी का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित ही बना रहेगा।